ISHQ KA NAGMA (2003)
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Description :
’’कुछ तो पासे दिले गारत शुदाए नाज़ करो, जिन्दगी तल्ख है यारांे गज़ल आगाज़ करो,, जी हाँ। गज़ल का आगाज़ जिन्दगी की तल्खियों को, कुछ देर के लिए भूल जाने के हाथों हुआ। इसीलिए इबतदायी गज़लों में हुसनो-मुहब्बत के गीत गाए गए। महबूब की खुबसूरत आँखों, नागन की तरह लहराती जुल्फों, और गुलाब की पंखड़ी जैसे होठों की बातें की गई। लेकिन आहिस्ता आहिस्ता गज़ल की दुनिया में ज़िन्दगी के मसाइल भी दर आए। कभी वली ने कहा ’’मुफलिसी सब बहार खेती है मर्द का इतबार खेती है’’ तो कभी मीर ने कहा ’’दिल की बस्ती भी शहरे दिल्ली है, जो भी गुज़रा उसी ने लूटा है’’ इस सब के बावजूत, ग़ालिब ने फरमायाः ’’हर चंद हो हक की गुफतगू , बनती नही है बादाओ सागर कहे बगैर’’ गजल की दुनिया पर शायरों की अज़मत आसमान की तरह छाई है। अज़मत के इस आसमाँ में मुग़्न्न्ी की आवाज़े भी सदियों से गज़ल के चराग़ रौशन थे और आज भी रौशन हैं। इन्ही। चरागों की लौ में इजा़फा कर रहें साधना सरगम और संजय तलवार जिन्होंने इस ।स्ठन्ड को अपनी आवाज़ों से सजाया है। इस में पेश किया गया तमाम कलाम ’’ग़जलनामे’’ से लिया गया है जो मशहूर तरक्की पसन्द शायर जनाब अली सरदार जाफरी की रहनुमाई में डा. राज निगम ने तरतीब दिया है। और जिसमें 600 उर्दू शायरों की कई इज़ार तक़लीकात शामिल है। अली सरदार जाफरी और डाँ राज निगम आज हममें नहीं हैं। ये ।स्ठन्ड उनकी याद को नज़रानः ए अकीदतों- मुहब्बत है। ’’जानेवाले कभी नही आते, जानेवालों की याद आती है’’