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Lyrics
1 BHAI KOI SATGURU JAAG PIYARI.mp3
Album: KAHAT KABIR(1994)
भाई, कोई सतगुरू सन्त
भाई, कोई सतगुरू सन्त कहावै।
नैनन अलख लखावै।
प्राण पूज्य किरियाते न्यारा, सहज समाधि सिखावै।
द्वार न रूंधे पवन न रोके, नहि भवखण्ड तजावै।
यह मन जाय यहाँ लग जब ही, परमात दरसावै।
करम करै नि-करम रहै जो, ऐसी जुगत लखावै।
जाग पियरी अब का सौंवे
जाग पियरी अब का सौंवे -2, रैन गई दिन काहे को खोवे -2
जाग पियरी अब का सौंवे -2
जिन जागा तीन मानिक पाया -2, ते बौरी सब सोवे गवाया -2
पिया तेरे चतुर तू मूरख नारी -2, कबहूं ना पिया की सेज संवारी
जाग पियरी अब का सौंवे -2, रैन गई दिन काहे को खोवे -2
जाग पियरी अब का सौंवे
तें बौरी, बौरापन किन्ही -2, भर जोबन पिया अपन ना चिन्हीं -2
जाग देख पिया सेज ना तेरे -2, तोरी छाडी उठी गये सवेरे
कहें कबीर सोइ धुन जागे, शब्द बान उर अंतर लागे -2
जाग पियरी अब का सौंवे -2, रैन गई दिन काहे को खोवे -2
जाग पियरी अब का सौंवे -2
विवरण
सन्त कबीर आत्मा और शरीर की तुलना प्रीतम और प्रेमिका से करते हैं। इस रिश्ते से आन्तरिक प्रेम में गहनता प्राप्त की जा सकती हैं। दैनिक जीवन में, जैसे प्रेमिका अपने प्रीतम पर अपनी निगाह बनाए रखती है, जिससे उसका सुख और रीझन जुड़े हैं, ठीक उसी तरह हमारा मन, अपने प्रीतम यानि आत्मा के तौर तरीकों से नावाकिफ रहकर, जीवन की अन्य समस्याओं में उलझा रहता है। यदि आत्मा को ही प्रीतम पहचानता, तो वह आत्म विभोर हो उठता है। उसने अपनी राहों में कहीं भी तो प्रीतम को स्थान नहीं दिया, और यौवन बीत गया। जब भोर आएगी यानी जब जागृति का समय आएगा, तो यही मन श्रद्धा और भक्ति की सेज बन, सांसारिक चेतनाओं से उठकर, सूक्ष्म चेतनता में आ जाएगा। कबीर जी कहते हैं - मन में यदि आत्म प्रेम का बीज स्थापित हो, तो यह अमृत वाणी के प्रवाह से ही जागृत हो उठता है।
ENGLISH TRANSLATION BY GURUDEV RABINDRANATH TAGORE
BHAI KOI SATGURU SANT
He is the real Sadhu, who can reveal the form of the Formless to the vision of these eyes:
Who teaches the simple way of attaining Him, that is other than rites or ceremonies:
Who does not make you close the doors, and hold the breath, and renounce the world:
Who makes you perceive the Supreme Spirit wherever the mind attaches itself:
Who teaches you to be still in the midst of all your activities.
Ever immersed in bliss, having no fear in his mind, he keeps the spirit of union in the midst of all enjoyments.
The infinite dwelling of the Infinite Being is everywhere: in earth, water, sky, and air:
Firm as the thunderbolt, the seat of the seeker is established above the Void.
He who is within is without: I see Him and none else.
JAAG PIYARI
O friend, awake, and sleep no more!
The night is over and gone, would you lose your day also?
Others, who have wakened, have received jewels;
O foolish woman! you have lost all whilst you slept.
Your lover is wise, and you are foolish, O woman!
You never prepared the bed of your husband:
O mad one! you passed your time in silly play.
Your youth was passed in vain, for you did not know your Lord;
Wake, wake! See! your bed is empty: He left you in the night.
Kabir says: "Only she wakes, whose heart is pierced with the arrow of His music."